
बिहार, जो एक ओर विकास की नई दिशा में आगे बढ़ने का दावा करता है, वहीं दूसरी ओर अब भी सामाजिक रूढ़ियों और जागरूकता की कमी से जूझ रहा है, खासकर जब बात हो परिवार नियोजन की। स्वास्थ्य विभाग की हालिया रिपोर्ट ने एक दिलचस्प लेकिन चिंताजनक तथ्य उजागर किया है: कंडोम वितरण में भागलपुर जिला पूरे बिहार में सबसे आगे है, लेकिन जब बात स्थायी या अर्ध-स्थायी गर्भनिरोधक उपायों जैसे नसबंदी, IUCD या गर्भनिरोधक गोलियों की हो, तो यही जिला राज्य के सबसे पीछे वाले जिलों में गिना जा रहा है।
यह विरोधाभास न सिर्फ सरकारी प्रयासों की दिशा पर सवाल उठाता है, बल्कि यह भी दिखाता है कि समाज में आज भी परिवार नियोजन को लेकर कई भ्रांतियाँ और डर जिंदा हैं।
जनसंख्या नियंत्रण: क्यों है यह अहम मुद्दा ?
बिहार की जनसंख्या वृद्धि दर देश के औसत से कहीं अधिक है। NFHS-5 (राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण) की रिपोर्ट के अनुसार:
बिहार की प्रजनन दर (TFR) अभी भी 3.0 के करीब है, जबकि राष्ट्रीय औसत 2.0 से नीचे पहुँच चुका है।
ग्रामीण बिहार में यह आंकड़ा और भी भयावह है।
इसके साथ ही बिहार में किशोरावस्था में गर्भधारण की दर भी राष्ट्रीय औसत से काफी अधिक है।
इन सब संकेतों से स्पष्ट होता है कि परिवार नियोजन और जनसंख्या नियंत्रण बिहार के लिए एक गहन और प्राथमिक मुद्दा है।
भागलपुर: कंडोम वितरण में टॉप पर
स्वास्थ्य विभाग के आंकड़े बताते हैं कि वर्ष 2025 में भागलपुर जिले में सबसे अधिक कंडोम वितरित किए गए। यह वितरण आशा कार्यकर्ताओं और प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों (PHC) के माध्यम से किया गया।
इसके पीछे प्रमुख कारण:
1. शहरी आबादी का प्रभाव:
भागलपुर अर्ध-शहरी जिला है जहां शिक्षित युवा वर्ग की संख्या अपेक्षाकृत अधिक है।
2. आशा और ANM वर्करों की सक्रियता:
घर-घर जाकर कंडोम बाँटना, महिला मंडलों में जागरूकता फैलाना और दुकानों के जरिए सहज उपलब्धता।
3. गैर-निरोधात्मक विकल्पों से परहेज़:
लोग अभी भी IUCD या नसबंदी जैसे उपायों से डरते हैं, इसलिए कंडोम को सुरक्षित और अस्थायी विकल्प मानते हैं।
4. कम लागत और गोपनीयता:
कंडोम निःशुल्क या बहुत कम कीमत पर उपलब्ध है और इसका प्रयोग करते समय किसी चिकित्सा हस्तक्षेप की ज़रूरत नहीं होती।
लेकिन नसबंदी और IUCD में क्यों है गिरावट?
महिला नसबंदी:
भागलपुर पूरे बिहार में 22वें स्थान पर। लगभग 3500 मामलों की तुलना में अन्य जिलों में यह आंकड़ा 8000–10000 तक है।
पुरुष नसबंदी:
बेहद कम, साल भर में मुश्किल से 60–80 पुरुष ही इसके लिए आगे आए।
IUCD/कॉपर-टी:
भागलपुर में इसका उपयोग मात्र 9% योग्य महिलाओं तक सीमित है, जबकि राज्य औसत 16% है।
गर्भनिरोधक गोलियाँ:
वितरण भले ही हो रहा हो, लेकिन नियमित सेवन नहीं होने से यह प्रभावी सिद्ध नहीं हो रहा।
समस्या की जड़: सामाजिक मानसिकता और भ्रम
1. नसबंदी को लेकर डर और भ्रांतियाँ:
ग्रामीण इलाकों में यह धारणा फैली है कि नसबंदी करवाने से महिला या पुरुष कमजोर हो जाते हैं।
कई लोग मानते हैं कि इससे भविष्य में कोई गंभीर बीमारी हो सकती है या काम करने की क्षमता कम हो जाती है।
2. पुरुष नसबंदी को “मर्दानगी” से जोड़ना:
“मर्द कमज़ोर हो जाएगा”, “लोग हँसेंगे” जैसी सोच अब भी लोगों के बीच प्रचलित है।
महिलाओं से अपेक्षा की जाती है कि वे ही यह जिम्मेदारी उठाएं।
3. IUCD के प्रति डर:
महिलाएं इसे शरीर के भीतर किसी “लोहे की वस्तु” के रूप में देखती हैं जिससे पीड़ा या गर्भधारण की जटिलता हो सकती है।
4. जागरूकता का अभाव:
अधिकतर परिवार नियोजन को केवल बच्चों की संख्या सीमित करने तक ही सीमित मानते हैं, जबकि यह महिला स्वास्थ्य, वित्तीय स्थिरता और सामाजिक संतुलन का भी मामला है।
सरकारी योजनाओं की सीमाएं-
सरकार द्वारा परिवार नियोजन को बढ़ावा देने के लिए कई योजनाएं चलाई जा रही हैं:
मिशन परिवार विकास
अंतराल पद्धति के लिए प्रोत्साहन योजना
नसबंदी करवाने पर नकद प्रोत्साहन
ASHA कार्यकर्ताओं को लक्ष्य पूरा करने पर बोनस
परंतु, ज़मीनी स्तर पर इन योजनाओं का असर तभी हो सकता है जब लोगों की मानसिकता बदले, और उन्हें सही जानकारी सही माध्यम से दी जाए।
समाज में सकारात्मक परिवर्तन कैसे आए?
1. पुरुषों को परिवार नियोजन का भागीदार बनाना:
विशेष रूप से पुरुषों के लिए जागरूकता कार्यक्रम चलाए जाएं।
पुरुष नसबंदी को लेकर फैली भ्रांतियों को हटाया जाए।
2. प्रचार माध्यमों का आधुनिक इस्तेमाल:
लोकगीत, नुक्कड़ नाटक, शॉर्ट फिल्म्स और सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म के जरिए युवाओं तक पहुंच बनाई जाए।
3. महिला समूहों की सक्रिय भागीदारी:
स्व-सहायता समूहों और महिला मंडलों को परिवार नियोजन पर चर्चा का मंच बनाना।
4. स्वास्थ्य सेवाओं की गुणवत्ता बढ़ाना:
नसबंदी और IUCD प्रक्रिया को सरल, सुरक्षित और भरोसेमंद बनाना।
नसबंदी शिविरों में चिकित्सकीय संसाधनों की पूर्ति करना।